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सब्जी की खेती

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।
मचान विधि - सब्जी की खेती करने का आसान तरीका

मचान विधि - सब्जी की खेती करने का आसान तरीका

जमीन पर खेती करना और मचान पर खेती करने में जमीन आसमान का अंतर है। मचान विधि खेती के लिए ज्यादा धन खर्चने की भी जरूरत नहीं है। इसके लिए जरूरी लकड़ी आदि का इंतजाम किसान ढेंचा आदि के माध्यम से खुद की जमीन के एक हिस्से या फिर मेंढ़ों के किनारे कर सकता है। मचान पर उगाई सब्जी और जमीन पर उगाई सब्जी की गुणवत्ता में काफी अंतर होता है।

  मचान विधि खेती 

 मचान विधि खेती यानी की खेत में जाल लगाकर उस पर बेलों का चढ़ाने को कहते हैं। इस तरीके से खेती करने में पानी से बेलें बची रहती हैं। फल जमीन से कई फीट हटकर लगते हैं। फलों की गुणवत्ता जमीन पर पड़े रहने, धूप और पानी के संपर्क में आने से खराब होती है। इसके अलावा मचान विधि से खेती करने का एक लाभ यह होता है कि फल लटकने के कारण लम्बा आकार भी लेते हैं। घीया तोरई जैसी फसलों की लम्बाई ज्यादा और मोटाई बेहद कम रहती है। पूरा फल एक ही रंगा का होता है। इसमें चमक भी ज्यादा रहती है।

  मचान विधि से सब्जी की खेती 

 मचान विधि खेती में सबसे जरूरी खेत में मचान बनाना होता है। बाकी तो जिस तरह से बेल वाली ​सब्जियों के लिए नाली बनाई जाती है उसी तरीके से बीज बुवान होता है। नालियों के मध्य बेल फेलने वाली जगह पर मचान बनाया जाता है। दोनों तरफ लकड़ी सीधी गाढकर तार या प्लास्टिक की मजबूत चीप से जाल बना दिया जाता है ताकि बेलें फैल सकें। इनकी तुडाई मचान के नीचे से बडी आसानी से हो जाती है।

निरंजन सरकुंडे का महज डेढ़ बीघे में बैंगन की खेती से बदला नसीब

निरंजन सरकुंडे का महज डेढ़ बीघे में बैंगन की खेती से बदला नसीब

किसान निरंजन सरकुंडे ने बताया है, कि उनके पास 5 एकड़ खेती करने लायक भूमि है। पहले सरकुंडे अपने खेत में पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। जिससे उनको उतनी आमदनी नहीं हो पाती थी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, बिहार और हरियाणा में ही किसान केवल बागवानी की ओर रुख नहीं कर रहे। इनके साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी किसान पारंपरिक फसलों की जगह फल और सब्जियों की खेती में अधिक रुची ले रहे हैं। मुख्य बात यह है, कि सब्जियों की खेती करने से किसानों की आय में भी काफी इजाफा होगा। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार देखने को मिलेगा। हालांकि, पहले पारंपरिक फसलों की खेती करने पर किसानों को खर्चे की तुलना में उतना ज्यादा मुनाफा नहीं होता था। साथ ही, परिश्रम भी काफी ज्यादा करना पड़ता था। बहुत बार तो अत्यधिक बारिश अथवा सूखा पड़ने से फसल भी बर्बाद हो जाती थी। परंतु, वर्तमान में बागवानी करने से किसानों को प्रतिदिन आमदनी हो रही है। 

महाराष्ट्र के नांदेड़ निवासी किसान का चमका नसीब

वर्तमान में हम महाराष्ट्र के नांदेड़ के निवासी एक ऐसे ही किसान के संबंध में बात करेंगे, जिनकी
सब्जी की खेती से किस्मत बदल गई। इस किसान का नाम निरंजन सरकुंडे है। वह नांदेड जिला स्थित जांभाला गांव के मूल निवासी हैं। निरंजन सरकुंडे एक छोटे किसान हैं। उनके समीप काफी कम भूमि है। उन्होंने डेढ़ बीघे भूमि पर बैंगन की खेती की है। विशेष बात यह है, कि विगत तीन वर्षों से वह इस खेत में बैंगन की पैदावार कर रहे हैं, जिससे उन्हें अभी तक चार लाख रुपये की आमदनी हुई है।

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बैंगन विक्रय कर कमा चुके 3 लाख रुपये का मुनाफा

निरंजन सरकुंडे का कहना है, कि उनके समीप 5 एकड़ खेती करने लायक भूमि है। निरंजन सरकुंडे इससे पहले अपने खेत में पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। परंतु, उससे उनको उतनी ज्यादा कमाई नहीं हो पाती थी। अब ऐसी स्थिति में उन्होंने सब्जी का उत्पादन करने का निर्णय लिया। उन्होंने डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की बिजाई कर डाली, जिससे कि उनकी अच्छी-खासी आमदनी हो रही है। वर्तमान में वह बैंगन बेचकर 3 लाख रुपये का मुनाफा कमा चुके हैं। हालांकि, वह बैंगन के साथ-साथ पांरपरिक फसलों का भी उत्पादन कर रहे हैं। 

निरंजन सरकुंडे के बैगन की बिक्री स्थानीय बाजार में ही हो जाती है

वर्तमान में निरंजन सरकुंडे पूरे गांव के लिए मिसाल बन गए हैं। वर्तमान में पड़ोसी गांव ठाकरवाड़ी के किसानों ने भी उनको देखकर सब्जी की खेती चालू कर दी है। निरंजन सरकुंडे ने बताया है, कि इस डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती से वह तकरीबन 3 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर चुके हैं। हालांकि, डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती करने पर उनको 30 हजार रुपये का खर्चा करना पड़ता है। छोटी जोत के किसान निरंजन द्वारा पैदा किए गए बैंगन की स्थानीय बाजार में अच्छी-खासी बिक्री है। सरकुंडे ने बताया है, कि ह वह अपने खेत की सब्जियों को बाहर सप्लाई नहीं करते हैं। उनके बैगन की स्थानीय बाजार में ही काफी अच्छी बिक्री हो जाती है।

ऑफ सीजन में गाजर बोयें, अधिक मुनाफा पाएं (sow carrots in off season to reap more profit in hindi)

ऑफ सीजन में गाजर बोयें, अधिक मुनाफा पाएं (sow carrots in off season to reap more profit in hindi)

गाजर जो दिखने में बेहद ही खूबसूरत होती है और इसका स्वाद भी काफी अच्छा होता है स्वाद के साथ ही साथ विभिन्न प्रकार से हमारे शरीर को लाभ पहुंचाती है। गाजर से जुड़ी पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहें । जानें कैसे ऑफ सीजन में गाजर बोयें और अधिक मुनाफा पाएं। 

ऑफ सीजन में गाजर की खेती दें अधिक मुनाफा

सलाद के लिए गाजर का उपयोग काफी भारी मात्रा में होता है शादियों में फेस्टिवल्स विभिन्न विभिन्न कार्यक्रमों में गाजर के सलाद का इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए लोगों में इसकी मांग काफी बढ़ जाती है, बढ़ती मांग को देखते हुए इनको ऑफ सीजन भी उगाया जाता है विभिन्न रासायनिक तरीकों से और बीज रोपड़ कर। 

गाजर की खेती

गाजर जिसको इंग्लिश में Carrot के नाम से भी जाना जाता है। खाने में मीठे होते हैं तथा दिखने में खूबसूरत लाल और काले रंग के होते हैं। लोग गाजर की विभिन्न  विभिन्न प्रकार की डिशेस बनाते हैं जैसे; गाजर का हलवा सर्दियों में काफी शौक और चाव से खाया जाता है। ग्रहणी गाजर की मिठाइयां आदि भी बनाती है। स्वाद के साथ गाजन में विभिन्न प्रकार के विटामिन पाए जाते हैं जैसे विटामिनए (Vitamin A) तथा कैरोटीन (Carotene) की मात्रा गाजर में भरपूर होती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए कच्ची गाजर लोग ज्यादातर खाते हैं इसीलिए गाजर की खेती किसानों के हित के लिए काफी महत्वपूर्ण होती है। 

गाजर की खेती करने के लिए जलवायु

जैसा कि हम सब जानते हैं कि गाजर के लिए सबसे अच्छी जलवायु ठंडी होती है क्योंकि गाजर एक ठंडी फसल है जो सर्दियों के मौसम में काफी अच्छी तरह से उगती है। गाजर की फसल की खेती के लिए लगभग 8 से 28 डिग्री सेल्सियस का तापमान बहुत ही उपयोगी होता है। गर्मी वाले इलाके में गाजर की फसल उगाना उपयोगी नहीं होता। 

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ऑफ सीजन में गाजर की खेती के लिए मिट्टी का उपयोग

किसान गाजर की अच्छी फसल की गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए तथा अच्छी उत्पादन के लिए दोमट मिट्टी का ही चयन करते हैं क्योंकि यह सबसे बेहतर तथा श्रेष्ठ मानी जाती है। फसल के लिए मिट्टी को भली प्रकार से भुरभुरा कर लेना आवश्यक होता है। बीज रोपण करने से पहले जल निकास की व्यवस्था को बना लेना चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार की जलभराव की स्थिति ना उत्पन्न हो। क्योंकि जलभराव के कारण फसलें सड़ सकती हैं , खराब हो सकती है, जड़ों में गलन की समस्या भी उत्पन्न हो सकती है तथा फसल खराब होने का खतरा बना रहता है। 

गाजर की खेती का सही टाइम

किसानों और विशेषज्ञों के अनुसार गाजर की बुवाई का सबसे अच्छा और बेहतर महीना अगस्त से लेकर अक्टूबर तक के बीच का होता है। गाजर की कुछ अन्य किस्में  ऐसी भी हैं जिनको बोने का महीना अक्टूबर से लेकर नवंबर तक का चुना जाता है और यह महीना सबसे श्रेष्ठ महीना माना जाता है। गाजर की बुवाई यदि आप रबी के मौसम में करेंगे , तो ज्यादा उपयोगी होगा गाजर उत्पादन के लिए तथा आप अच्छी फसल को प्राप्त कर सकते हैं।

ऑफ सीजन में गाजर की फसल के लिए खेत को तैयार करे

किसान खेत को भुरभुरी मिट्टी द्वारा तैयार कर लेते हैं खेत तैयार करने के बाद करीब दो से तीन बार हल से जुताई करते हैं। करीब तीन से 5 दिन के भीतर अपने पारंपरिक हल से जुताई करना शुरू कर देते हैं और सबसे आखरी जुताई के लिए पाटा फेरने की क्रिया को अपनाते हैं।  खेत को इस प्रकार से फसल के लिए तैयार करना उपयुक्त माना जाता है।

गाजर की उन्नत किस्में

गाजर की बढ़ती मांग को देखते हुए किसान इनकी विभिन्न विभिन्न प्रकार की  किस्मों का उत्पादन करते हैं। जो ऑफ सीजन भी उगाए जाते हैं। गाजर की निम्न प्रकार की किस्में होती है जैसे:

  • पूसा मेघाली

पूसा मेघाली की बुआई लगभग अगस्त से सितंबर के महीने में होती है। गाजर की इस किस्म मे भरपूर मात्रा में कैरोटीन होता है जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक है। यह फसल उगने में 100 से लेकर 110 दिनों का समय लेते हैं और पूरी तरह से तैयार हो जाती हैं।

  • पूसा केसर

गाजर कि या किस्म भी बहुत ही अच्छी होती है या 110  दिनों में तैयार हो जाती हैं। पूसा केसर की बुआई का समय अगस्त से लेकर सितंबर का महीना उपयुक्त होता है।

  • हिसार रसीली

हिसार रसीली सबसे अच्छी किस्म होती है क्योंकि इसमें विटामिन ए पाया जाता है तथा इसमें कैरोटीन भी होता है। इसलिए बाकी किस्मों से यह सबसे बेहतर किसमें होती है। यह फसल तैयार होने में लगभग 90 से 100 दिनों का टाइम लेती है।

  • गाजर 29

गाजर की या किस्म स्वाद में बहुत मीठी होती है इस फसल को तैयार होने में लगभग 85 से 90 दिनों का टाइम लगता है।

  • चैंटनी

चैंटनी किस्म की गाजर दिखने में मोटी होती है और इसका रंग लाल तथा नारंगी होता है इस फसल को तैयार होने में लगभग 80 से 90 दिन का टाइम लगता है।

  • नैनटिस

नैनटिस इसका स्वाद खाने में बहुत स्वादिष्ट तथा मीठे होते हैं या फसल उगने में 100 से 120 दिनों का टाइम लेती है। 

 दोस्तों हम उम्मीद करते हैं आपको हमारा यह आर्टिकल Gajar (agar sinchai ki vyavastha ho to), Taki off-season mein salad ke liye demand puri ho aur munafa badhe काफी पसंद आया होगा और हमारा यह आर्टिकल आपके लिए बहुत ही लाभदायक साबित होगा। हमारे इस आर्टिकल से यदि आप संतुष्ट है तो ज्यादा से ज्यादा इसे शेयर करें।

मई-जून में करें फूलगोभी की खेती मिलेगा शानदार मुनाफा

मई-जून में करें फूलगोभी की खेती मिलेगा शानदार मुनाफा

गोभी वर्गीय सब्जियों में फूलगोभी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी खेती विशेष तोर पर श्वेत, अविकसित व गठे हुए पुष्प पुंज की पैदावार के लिए की जाती है। 

इसका इस्तेमाल सलाद, बिरियानी, पकौडा, सब्जी, सूप और अचार इत्यादि निर्मित करने में किया जाता है। साथ ही, यह पाचन शक्ति को बढ़ाने में बेहद फायदेमंद है। यह प्रोटीन, कैल्शियम और विटामिन ‘ए’ तथा ‘सी’ का भी बेहतरीन माध्यम है।

फूलगोभी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

फूलगोभी की सफल खेती के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु सबसे अच्छी होती है। दरअसल, अधिक ठंड और पाला का प्रकोप होने से फूलों को काफी ज्यादा नुकसान होता है। 

शाकीय वृद्धि के दौरान तापमान अनुकूल से कम रहने पर फूलों का आकार छोटा हो जाता है। एक शानदार फसल के लिए 15-20 डिग्री तापमान सबसे अच्छा होता है।

फूलगोभी की प्रमुख उन्नत प्रजातियां 

फूलगोभी को उगाए जाने के आधार पर फूलगोभी को विभिन्न वर्गो में विभाजित किया गया है। इसकी स्थानीय तथा उन्नत दोनों तरह की किस्में उगाई जाती हैं। इन किस्मों पर तापमान और प्रकाश समयावधि का बड़ा असर पड़ता है। 

अत: इसकी उत्तम किस्मों का चयन और उपयुक्त समय पर बुआई करना बेहद जरूरी है। अगर अगेती किस्म को विलंब से और पिछेती किस्म को शीघ्र उगाया जाता है तो दोनों में शाकीय वृद्धि ज्यादा हो जाती है। 

नतीजतन, फूल छोटा हो जाता है और फूल देरी से लगते हैं। इस आधार पर फूलगोभी को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया है – पहला –अगेती, दूसरा-मध्यम एवं तीसरा-पिछेती।

  • फूल गोभी की अगेती किस्में: अर्ली कुंआरी, पूसा कतिकी, पूसा दीपाली, समर किंग, पावस, इम्प्रूब्ड जापानी।
  • फूल गोभी की मध्यम किस्में: पंत सुभ्रा,पूसा सुभ्रा, पूसा सिन्थेटिक, पूसा स्नोबाल, के.-1, पूसा अगहनी, सैगनी, हिसार नं.-1 ।
  • फूल गोभी की पिछेती किस्में: पूसा स्नोबाल-1, पूसा स्नोबाल-2, स्नोबाल-16 ।

फूलगोभी के लिए जमीन की तैयारी

फूलगोभी की खेती ऐसे तो हर तरह की जमीन में की जा सकती। लेकिन, एक बेहतर जल निकासी वाली दोमट या बलुई दोमट जमीन जिसमें जीवांश की भरपूर मात्रा उपलब्ध हो, इसके लिए बेहद उपयुक्त मानी जाती है। 

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इसकी खेती के लिए बेहतर ढ़ंग से खेत को तैयार करना चाहिए। इसके लिए खेत को ३-४ जुताई करके पाटा मारकर एकसार कर लेना चाहिए।

फूलगोभी की खेती में खाद एवं उर्वरक

फूलगोभी की उत्तम पैदावार हांसिल करने के लिए खेत के अंदर पर्याप्त मात्रा में जीवांश का होना बेहद अनिवार्य है। खेत में 20-25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट रोपाई के 3-4 सप्ताह पहले बेहतर ढ़ंग से मिला देनी चाहिए। 

इसके अतिरिक्त 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए। 

नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा आखिरी जुताई या प्रतिरोपण से पूर्व खेत में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। वहीं, शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर खड़ी फसल में 30 और 45 दिन बाद उपरिवेशन के तोर पर देना चाहिए।

फूलगोभी की खेती में बीजदर, बुवाई और विधि 

फूलगोभी की अगेती किस्मों का बीज डॉ 600-700 ग्राम और मध्यम एवं पिछेती किस्मों का बीज दर 350-400 ग्राम प्रति हेक्टेयर है। 

फूलगोभी की अगेती किस्मों की बुवाई अगस्त के अंतिम सप्ताह से 15 सितंबर तक कर देनी चाहिए। वहीं, मध्यम और पिछेती प्रजातियों की बुवाई सितंबर के बीच से पूरे अक्टूबर तक कर देनी चाहिए।

फूलगोभी के बीज सीधे खेत में नहीं बोये जाते हैं। अत: बीज को पहले पौधशाला में बुआई करके पौधा तैयार किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में प्रतिरोपण के लिए लगभग 75-100 वर्ग मीटर में पौध उगाना पर्याप्त होता है। 

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पौधों को खेत में प्रतिरोपण करने के पहले एक ग्राम स्टेप्टोसाइक्लिन का 8 लीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक डुबाकर उपचारित कर लें। उपचारित पौधे की खेत में लगाना चाहिए।

अगेती फूलगोभी के पौधों कि वृद्धि अधिक नहीं होती है। अत: इसका रोपण कतार से कतार 40 सेंमी. पौधे से पौधे 30 सेंमी. की दूरी पर करना चाहिए। 

परंतु, मध्यम एवं पिछेती किस्मों में कतार से कतार की दूरी 45-60 सेंमी. और पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंमी. तक रखनी चाहिए।

फूलगोभी की खेती में सिंचाई प्रबंधन 

पौधों की अच्छी बढ़ोतरी के लिए मृदा में पर्याप्त मात्रा में नमी का होना बेहद जरूरी है। सितंबर माह के पश्चात 10 या 15 दिनों के अंतराल पर जरूरत के अनुरूप सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में 5 से 7 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए।

फूलगोभी की खेती में खरपतवार नियंत्रण

फूलगोभी में फूल तैयार होने तक दो-तीन निकाई-गुड़ाई से खरपतवार का नियन्त्रण हो जाती है, परन्तु व्यवसाय के रूप में खेती के लिए खरपतवारनाशी दवा स्टाम्प 3.0 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव रोपण के पहले काफी लाभदायक होता है।

फूलगोभी की खेती में निराई-गुड़ाई और मृदा चढ़ाना

पौधों कि जड़ों के समुचित विकास हेतु निकाई-गुड़ाई अत्यंत आवश्यक है। एस क्रिया से जड़ों के आस-पास कि मिटटी ढीली हो जाती है और हवा का आवागमन अच्छी तरह से होता है जिसका अनुकूल प्रभाव उपज पर पड़ता है। वर्षा ऋतु में यदि जड़ों के पास से मिटटी हट गयी हो तो चारों तरफ से पौधों में मिटटी चढ़ा देना चाहिए।

किसान सुबोध ने दोस्त की सलाह से खीरे की खेती कर मिशाल पेश करी है

किसान सुबोध ने दोस्त की सलाह से खीरे की खेती कर मिशाल पेश करी है

बिहार के इस किसान ने पारंपरिक खेती छोड़ शुरु की खीरे की खेती। आज वह हर सीजन में लाखों की आमदनी कर रहे हैं। भारत में किसान अब परंपरागत खेती को छोड़कर नई तकनीक को अपना रहे हैं। किसान सब्जी एवं मेडिसिनल प्लांट की खेती कर आर्थिक हालातों को बेहतर कर रहे हैं। इस वक्त बिहार के भिन्न-भिन्न जनपदों में युवा किसान सब्जी और औषधीय पौधों की खेती कर काफी मोटी आमदनी कर रहे हैं। इसके लिए बिहार सरकार भी किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिड़ी उपलब्ध करा रही है।

किसान सुबोध खीरे की खेती करते हैं

बिहार के सहरसा जनपद के युवा किसान सुबोध झा ने अपनी 4 एकड़ की भूमि में नेट हाउस पद्धति से
खीरे की खेती की चालू करी। उसके लिए उन्होंने बिहार सरकार से सब्सिड़ी भी ली है। किसान सुबोध का कहना है, कि केवल 3 से 4 महीनों में ही उन्हें चार से पांच लाख रुपए का मुनाफा हुआ। इस आमदनी से उन्होंने फिलहाल औषधीय पौधों की भी खेती चालू कर दी है। ये भी पढ़े: पॉली हाउस तकनीक से खीरे की खेती कर किसान कमा रहा बेहतरीन मुनाफा

सुबोध को खीरे की खेती के लिए किसने सलाह दी

किसान सुबोध का कहना है, कि वह काफी वर्षों से खेती-किसानी कर रहे हैं। परंतु, खीरे की खेती के संदर्भ में उनके एक दोस्त ने जानकारी दी, जो कि बिहार के कृषि विभाग में नौकरी करते हैं। उनकी सलाह के पश्चात उन्होंने इसकी खेती की शुरुआत करी है। सुबोध अपने खीरे की खेती के लिए केवल जैविक खाद का उपयोग करते हैं, जिस कारण उनके खीरे की मांग बाजार में काफी ज्यादा रहती है।

सुबोध से अन्य किसान भी तकनीकी गुर सीख रहे हैं

सुबोध का कहना है, कि उनकी खीरे की खेती की सफलता को ध्यान में रखते हुए उनके आस पास के साथी किसान भी बेहद प्रभावित हुए हैं। साथ ही, उन्होंने भी खीरे और औषधीय पौधे की खेती शुरु कर दी है। सुबोध ने बताया है, कि वह समय-समय पर अपने जनपद के कृषि वैज्ञानिकों से खेती से जुड़ी जानकारी से जुड़ी सलाह लेते हैं। वह बताते हैं, कि नेट हाउस में सब्जी की खेती करने से उनको काफी अच्छा उत्पादन हांसिल हुआ है। देखा देखी उनकी राह पर अन्य युवा किसान भी चलने लगे हैं।
कटहल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी (Jackfruit Farming Information In Hindi)

कटहल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी (Jackfruit Farming Information In Hindi)

किसान भाइयों बहुत पुराने जमाने से एक कहावत चली आ रही है कि कटहल की खेती कभी गरीब नहीं होने देती यानी इसकी खेती से किसान धनी बन जाते हैं। 

वैसे तो इसे भारतीय जंगली फल या सब्जी कहा जाता है। इसके अलावा कटहल को मीट का विकल्प कहा जाता है। इसके कारण बहुत से लोग इसे पसंद नहीं करते हैं। 

इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि ये कटहल अनेक बीमारियों में फायदा करता है। किसान भाइयों के लिए कटहल की खेती अब लाभकारी हो गयी है। 

इसका कारण यह है कि कटहल के कई ऐसी भी किस्में आ गयीं हैं जिनमें साल के बारहों महीने फल लगते हैं। इससे किसानों को पूरे साल कटहल से आमदनी मिलती रहती है। 

इसलिये किसानों के लिए कटहल की खेती नकदी फसल की तरह बहुत ही लाभकारी है।

कटहल से मिलने वाले लाभ

  1. कटहल में विटामिन ए, सी, थाइमिन, कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, आयरन, जिंक आदि पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं
  2. कटहल का पल्प का जूस हार्ट की बीमारियों में लाभदायक होता है
  3. कटहल की पोटैशियम की मात्रा अधिक पायी जाती है जिससे ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहता है
  4. रेशेदार सब्जी व फल होने के कारण कटहल से एनीमिया रोग में लाभ मिलता है
  5. कटहल की जड़ उबाल कर पीने से अस्थमा रोग में लाभ मिलता है
  6. थायरायड रोगियों के लिए भी कटहल काफी लाभकारी होता है
  7. कटहल से हड्डियों को मजबूत करता है आॅस्टियोपोरोसिस के रोगों से बचाता है
  8. कटहल में विटामिन ए और सी पाये जाने के कारण वायरल इंफेक्शन में लाभ मिलता है
  9. अल्सर, कब्ज व पाचन संबंधी रोगों में भी कटहल फायदेमंद साबित होता है
  10. कटहल में विटामिन ए पाये जाने के कारण आंखों की रोशनी भी बढ़ती है।
कटहल से मिलने वाले लाभ
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व्यावसायिक लाभ

कटहल के उत्पादन से व्यावसायिक लाभ भी मिलते हैं। कटहल को हरा व पक्का बेचा जा सकता है। इसके हरे कटहल की सब्जी बनायी जाती है। 

इसके अलावा इसका अचार, पापड़ व जूस भी बनाया जाता है। कटहल का फल तो लाभकारी है और इसकी जड़ भी कई तरह की दवाओं के काम आती है।

कटहल की खेती किस प्रकार से की जाती है

आइये जानते हैं कि बहुउपयोगी कटहल की खेती या बागवानी कैसे की जाती है। इसके लिए आवश्यक भूमि, जलवायु, खाद, सिंचाई आदि के बारे में विस्तार से जानते हैं।

मिट्टी एवं जलवायु

कटहल की खेती वैसे तो सभी प्रकार की जमीन में हो जाती है लेकिन दोमट और बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त बताई जाती है। कटहल की खेती पीएच मान 6.5 से 7.5 वाली मृदा में भी की जा सकती है।

रेतीली जमीन में भी इसकी खेती की जा सकती है। समुद्र तल से 1000 मीटर ऊंचाई वाली पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। जलभराव वाली जमीन में इसकी खेती से परहेज किया जाता है क्योंकि जलजमाव से कटहल की जड़ें गल जातीं हैं तथा पौधा गिर जाता है। 

कटहल की खेती शुष्क एवं शीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में आसानी से की जा सकती है। कटहल की खेती अत्यधिक सर्दी बर्दाश्त नहीं कर पाती है। 

दक्षिण भारत में कटहल की खेती अधिक होती है। इसके अलावा असम को कटहल की खेती के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।

कटहल की उन्नत किस्में

कटहल की उन्नत किस्मों में खजवा, गुलाबी, रुद्राक्षी, सिंगापुरी, स्वर्ण मनोहर, स्वर्ण पूर्ति, नरेन्द्र देव कृषि विश्वाविद्यालय की एनजे-1, एनजे-2, एनजे-15 एनजे-3 व केरल कृषि विवि की मुत्तम वरक्का प्रमुख हैं।

कटहल की खेती किस प्रकार से की जाती है

कटहल की रोपाई कैसे करें

कृषक बंधुओं को खेत या बाग की भूमि की अच्छी तरह से जुताई करके और पाटा करके समतल और भुरभुरी बना लेना चाहिये। उसके बाद 10 मीटर लम्बाई चौड़ाई में एक मीटर लम्बाई चौड़ाई और गहराई के थाले बना लेने चाहिये। 

प्रत्येक थालों के हिसाब से 20 से 25 किलो गोबर की खाद व कम्पोस्ट तथा 250 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 500 पोटाश, 1 किलोग्राम नीम की खली तथा 10 ग्राम थाइमेट को डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला लें।

रोपाई दो तरह से होती है

कटहल की रोपाई दो तरह से होती है। पहला बीजू और दूसरा कलमी तरीका होता है। बीजू रोपाई करने के लिए 40 एमएम की काली पॉलीथिन में पके हुए फल का बीज गोबर की खाद और रेत मिलाकर दबा देना चाहिये। 

दूसरे कलम की पौध नर्सरी से लाकर थाले के बीच एक फूट लम्बे चौड़े और डेढ़ फुट का गहरा गड्ढा बनाकर उसमें लगा देना चाहिये।

रोपाई का समय

रोपाई का सबसे अच्छा समय वर्षाकाल माना जाता है। वर्षाकाल में रोपाई करने से पानी की व्यवस्था अलग से नहीं करनी होती है। कटहल के पौधों की रोपाई करने का सबसे उपयुक्त समय अगस्त सितम्बर का होता है।

सिंचाई प्रबंधन

वर्षा के समय पौधों की रोपाई करने के बाद सिंचाई का विशेष ध्यान रखन होगा। यदि वर्षा हो रही है तो कोई बात नहीं यदि वर्षा न होतो प्रत्येक सप्ताह में सिंचाई करते रहना चाहिये। 

सर्दी के मौसम में प्रत्येक 15 दिन में सिंचाई करना आवश्यक होता है। दो से तीन साल तक पौधों की सिंचाई का विशेष ध्यान रखन होता है। जब पेड़ में फूल आने की संभावना दिखे तब सिंचाई नहीं करनी चाहिये।

पौधों की विशेष निगरानी

कटहल का पौधा लगाने के एक साल बाद तक विशेष निगरानी करते रहना चाहिये। समय समय पर थाले की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिये। 

अगस्त सितम्बर माह में खाद व उर्वरक का प्रबंधन करते रहना चाहिये। इसके अलावा समय-समय पर सिंचाई की भी देखभाल करते रहना चाहिये। इसके अलावा पौधों की बढ़वार के लिए समय-समय पर कांट छांट भी की जानी चाहिये।

जड़ से पांच-छह फीट तक तनों व शाखाओं को काट कर पेड़ को सीधा बढ़ने देना चाहिये। उसके बाद चार-पांच तनों को फैलने देना चाहिये। इस तरह से पेड़ का ढांचा अच्छी तरह से विकसित हो जाता है तो अधिक फल लगते हैं।

खाद व उर्वरक प्रबंधन

कटहल के पेड़ में प्रत्येक वर्ष फल आते हैं, इसलिये अच्छे उत्पादन के लिए पेड़ों को खाद व उर्वरक उचित समय पर पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये। 

प्रत्येक पौधे को 20 से 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 100 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 100 ग्राम पोटाश प्रतिवर्ष बरसात के समय देना चाहिये। 

जब पौधों की उम्र 10 वर्ष हो जाये तो खाद व उर्वरकों की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये। उस समय प्रति पौधे के हिसाब से 80 से 100 किलो तक गोबर की खाद, एक किलोग्राम यूरिया, 2 किलो सिंगल सुपर फास्फेट तथा एक किलो पोटाश देना चाहिये।

कीट-रोग व रोकथाम

कटहल की खेती में अनेक प्रकार के कीट एवं रोग व कीटजनित रोग लगते हैं। उनकी रोकथाम करना जरूरी होता है। आइये जानते हैं कीट प्रबंधन किस तरह से किया जाये। 

1. माहू : कटहल में लगने वाला माहू कीट पत्तियों, टहनियों, फूलों व फलों का रस चूसते हैं। इससे पौधों की बढ़वार रुक जाती है। 

जैसे ही इस कीट का संकेत मिले। वैसे ही इमिडाक्लोप्रिट 1 मिलीलीटर को एक लीटर पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़काव करें।

2. तना छेदक: इस कीट के नवजात कीड़े कटहल के मोटे तने व डालियों मे छेद बनाकर घुस जात हैं और अंदर ही अंदर पेड़ को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे पेड़ सूखने लगता है तथा फसल पर विपरीत असर पड़ने लगता है। 

इसका पता लगते ही पेड़ में दिखने वाले छेद को अच्छी तरह से किसी पतले तार आदि से सफाई करना चाहिये फिर उसमें नुवाक्रान का तनाछेदक घोल 10 मिलीलीटर एक लीटर पेट्रोल या करोसिन में मिलाकर तेल की चार-पांच बूंद रुई में डालकर छेद को गीली चिकनी मिट्टी से बंद कर दें तो लाभ होगा। 

3. गुलाबी धब्बा : इस रोग से पत्तियों में नीचे की ओर से गुलाबी रंग का धब्बा बनने लगता है। इसकी रोकथाम के लिए कॉपर जनित फफूंदनाशी कॉपर आक्सीक्लोराइड या ब्लू कॉपर 3 मिली लीटर को प्रति लीटर पानी में मिलकार छिड़काव करना चाहिये। 

4. फल सड़न रोग: यह एक फफूंदी रोग। इस रोग के लगने के बाद कोमल फलों के डंठलों के पास धीरे-धीरे सड़ने लगता है। 

इसकी रोकथाम के लिए ब्लू कॉपर के 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर घोल का छिड़काव तुरन्त करें और उसके 15 दिन बाद दुबारा छिड़काव करने लाभ मिलता है। 

यदि इसके बाद भी लाभ न मिले तो एक बार फिर छिड़काव कर देना चाहिये।

कटहल के फल की तुड़ाई कब और कैसे करें

कटहल का फल साधारण तौर पर फल लगने के 100 से 120 दिन के बाद तोड़ने के लायक हो जाता है। 

फिर भी जब इसका डंठल तथा डंठल से लगी पत्तियों का रंग बदल जाये यानी हरा से हल्का भूरा या पीला हो जाये और फल के कांटों का नुकीलापन कम हो जाये तब किसी तेज धार वाले चाकू से दस सेंटीमीटर डंठल के साथ तोड़ लेना चाहिये। 

यदि फल काफी ऊंचाई से तोड़ रहे हैं तो उसे रस्सी के सहारे नीचे उतारना चाहिये वरना जमीन पर गिर जाने से फल खराब हो सकता है।

पैदावार

कटहल के बीज से बोई गई खेती में फसल 7 से 8 वर्ष में फल आने लगते हैं और कलम से लगाई गई खेती में 5 से 6 साल में फल आने लगते हैं। 

यदि अच्छी तरह से देखभाल की जाये तो एक वृक्ष से 4 से 5 क्विंटल कटहल आसानी से पाया जा सकता है। यदि एक हेक्टेयर में 150 से 200 पौधे लगाये गये हैं तो इससे प्रतिवर्ष 3 से 4 लाख रुपये तक की आमदनी हो सकती है। 

दूसरे वर्ष इसकी फसल में कोई लागत नही लगती है और फसल इससे अधिक होती है।

सेवानिवृत फौजी महज 8 कट्ठे में सब्जी उत्पादन कर प्रति माह लाखों की आय कर रहा है

सेवानिवृत फौजी महज 8 कट्ठे में सब्जी उत्पादन कर प्रति माह लाखों की आय कर रहा है

राजेश कुमार का कहना है, कि उन्होंने वीएनआर सरिता प्रजाति के कद्दू की खेती की है। बुवाई करने के एक माह के उपरांत इसकी पैदावार शुरू हो गई। नौकरी से सेवानिवृत होने के उपरांत अधिकतर लोग विश्राम करना ज्यादा पसंद करते हैं। उनकी यही सोच रहती है, कि पेंशन के सहयोग से आगे की जिन्दगी आनंद और मस्ती में ही जी जाए। परंतु, बिहार में सेना के एक जवान ने रिटायरमेंट के उपरांत कमाल कर डाला है। उसने गांव में आकर हरी सब्जियों की खेती चालू कर दी है। इससे उसको पूर्व की तुलना में अधिक आमदनी हो रही है। वह वर्ष में सब्जी बेचकर लाखों रुपये की आमदनी कर रहे हैं। 

राजेश कुमार पूर्वी चम्पारण की इस जगह के निवासी हैं

सेवानिवृत फौजी पूर्वी चम्पारण जनपद के पिपरा कोठी प्रखंड मोजूद सूर्य पूर्व पंचायत के निवासी हैं। उनका नाम राजेश कुमार है, उन्होंने रिटायरमेंट लेने के पश्चात विश्राम करने की बजाए खेती करना पसंद किया। जब उन्होंने खेती आरंभ की तो गांव के लोगों ने उनका काफी मजाक उड़ाया। परंतु, राजेश ने इसकी परवाह नहीं की और अपने कार्य में लगे रहे। परंतु, जब मुनाफा होने लगा तो समस्त लोगों की बोलती बिल्कुल बंद हो गई। 

ये भी देखें: कद्दू उत्पादन की नई विधि हो रही है किसानों के बीच लोकप्रिय, कम समय में तैयार होती है फसल

कद्दू की बिक्री करने हेतु बाहर नहीं जाना पड़ता

विशेष बात यह है, कि राजेश कुमार को अपने उत्पाद की बिक्री करने के लिए बाजार में नहीं जाना पड़ता है। व्यापारी खेत से आकर ही सब्जियां खरीद लेते हैं। सीतामढ़ी, शिवहर, गोपालगंज और सीवान से व्यापारी राजेश कुमार से सब्जी खरीदने के लिए उनके गांव आते हैं। 

कद्दू की खेती ने किसान को बनाया मालामाल

किसान राजेश कुमार की मानें तो 8 कट्ठा भूमि में कद्दू की खेती करने पर 10 से 20 हजार रुपये की लागत आती थी। इस प्रकार उनका अंदाजा है, कि लागत काटकर इस माह वह 1.30 लाख रुपये का मुनाफा हांसिल कर लेंगे।

 

किसान राजेश ने 8 कट्ठे खेत में कद्दू का उत्पादन किया है

विशेष बात यह है, कि पूर्व में राजेश कुमार ने प्रयोग के रूप में पपीता की खेती चालू की थी। प्रथम वर्ष ही उन्होंने पपीता विक्रय करके साढ़े 12 लाख रुपये की आमदनी कर डाली। इसके पश्चात सभी लोगों का मुंह बिल्कुल बंद हो गया। मुनाफे से उत्साहित होकर उन्होंने आगामी वर्ष से केला एवं हरी सब्जियों की भी खेती शुरू कर दी। इस बार उन्होंने 8 कट्ठे भूमि में कद्दू की खेती चालू की है। वह 300 कद्दू प्रतिदिन बेच रहे हैं, जिससे उनको 4 से 5 हजार रुपये की आय अर्जित हो रही है। इस प्रकार वह महीने में डेढ़ लाख रुपये के आसपास आमदनी कर रहे हैं।

Sweet Potato Farming: शकरकंद की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

Sweet Potato Farming: शकरकंद की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

शकरकंद की फसल को कंदीय वर्ग में स्थान दिया गया है। भारत में शकरकंद की खेती अपना प्रमुख स्थान रखती है। भारत में शकरकंद की खेत का क्षेत्रफल प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। किसान आधुनिक ढंग से शकरकंद की खेती कर के अच्छा उत्पादन कर बेहतरीन आमदनी कर रहे हैं। शकरकंद की खेती व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बेहद फायदेमंद है। यदि आप शकरकंद की खेती करना चाहते हैं एवं शकरकंद की खेती के आधुनिक तरीके जानना चाहते हैं। तो यह आर्टिकल आपके लिए काफी मददगार साबित होगा। क्योंकि शकरकंद की खेती कब और कैसे की जाती है, इसके लिए उपयुक्त जलवायु, मिट्टी, खाद व उर्वरक क्या हैं। शकरकंद की खेती के लिए कितना पीएच मान होना चाहिए और शकरकंद की रोपाई कैसे करें आदि की जानकारी इस लेख में मिलेगी।

शकरकंद की फसल के लिए भूमि, जलवायु एवं उपयुक्त समय

शकरकंद की खेती से बेहतरीन पैदावार लेने के लिए समुचित जल निकासी वाली और कार्बनिक तत्वों से युक्त दोमट अथवा चिकनी दोमट भूमि सबसे अच्छी मानी गई है। शकरकंद की फसल का बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मिट्टी का पी. एच. 5.8 से 6.7 के मध्य होना चाहिए। शकरकंद की खेती के लिए शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु अनुकूल मानी जाती है। शकरकंद की खेती के लिए सर्वोत्तम तापमान 21 से 27 डिग्री के मध्य होना चाहिए। शकरकंद के लिए 75 से 150 सेंटीमीटर वर्षा अनुकूल मानी जाती है। यह भी पढ़ें: इस फसल की बढ़ती माँग से किसानों को होगा अच्छा मुनाफा शकरकंद की खेती मुख्यतः वर्षा ऋतु में जून से अगस्त में की जाती है। रबी के मौसम में अक्टूबर से जनवरी में सिंचाई के साथ की जाती है। उत्तर भारत में शकरकन्द की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में की जाती है। खरीफ ऋतु में इसकी खेती सर्वाधिक की जाती है। खरीफ सीजन में 15 जुलाई से 30 अगस्त तक शकरकंद की लताओं को लगा देना चाहिए। सिंचाई की सुविधा सहित रबी (अक्टूबर से जनवरी) के मौसम में भी शकरकंद की खेती की जाती है। जायद ऋतुओं में, इसकी लताओं को लगाने का वक्त फरवरी से मई तक का होता है। इस मौसम में खेती का प्रमुख उद्देश्य लताओं को जीवित रखना होता है। जिससे कि खरीफ की खेती में उनका इस्तेमाल हो सके। लताओं के अतिरिक्त शकरकन्द के कन्द को लगाकर भी सुनहरी शकरकन्द की खेती की जा सकती है।

शकरकंद की उन्नत किस्में कौन-कौन सी होती हैं

गौरी- शकरकंद की इस किस्म को साल 1998 में इजात किया गया था। गौरी किस्म को तैयार होने में लगभग 110 से 120 दिन का समय लग जाता है। शकरकंद की इस किस्म के कंद का रंग बैंगनी लाल होता है। गौरी किस्म की शकरकंद से औसतन उत्पादन तकरीबन 20 टन तक हो जाती है। इस किस्म को खरीफ एवं रवी के मौसम में उत्पादित किया जाता है। श्री कनका- शकरकंद की श्री कनका किस्म को साल 2004 में विकसित किया गया था। इस किस्म के कन्द का छिलका दूधिया रंग का होता है। इसको काटने पर पीले रंग का गूदा नजर आता है। यह 100 से 110 दिन के समयांतराल में पककर तैयार होने वाली किस्म है। इस किस्म का उत्पादन 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर है। एस टी-13 - शकरकंद की इस किस्म का गूदा बैगनी काले रंग का होता है। जानकारी के लिए बतादें, कि कंद को काटने पर गूदा बिल्कुल चुकंदर जैसे रंग का नजर आता है। इस किस्म के अंदर बीटा केरोटिन की मात्रा जीरो होती है। लेकिन, एंथोसायनिन (90 मिली ग्राम प्रति 100 ग्राम) वर्णक की वजह से इसका रंग बैंगनी-काला होता है। साथ ही, मिठास भी काफी कम होती हैं। लेकिन, एंटीऑक्सीडेन्ट एवं आयु बढ़ाने के लिए अच्छी साबित होती है। यह 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। साथ ही, इसका उत्पादन 14 से 15 टन प्रति हैक्टर होता है। यह भी पढ़ें: जिमीकंद की खेती से जीवन में आनंद ही आनंद एस टी- 14 - शकरकंद की यह किस्म साल 2011 में इजात की गई थी। शकरकंद की इस किस्म के कंद का रंग थोड़ा पीला वहीं गूदे का रंग हरा पीला होता है। इस किस्म के अंदर उच्च मात्रा में वीटा केरोटिन (20 मिली ग्राम प्रति 30 ग्राम) विघमान रहता है। इस किस्म को तैयार होने में 110 दिन का वक्त लगता है। यदि इसकी उपज की बात की जाए तो वह 15 से 71 टन प्रति हेक्टेयर होती है। आज तक के परीक्षण में इस किस्म को सबसे अच्छा पाया गया है। सिपस्वा 2- शकरकंद की इस किस्म का उत्पादन अम्लीय मृदा में भी किया जा सकता है। इनमें केरोटिन की प्रचूर मात्रा होती है। शकरकंद की यह किस्म 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 20 से 24 टन प्रति हेक्टेयर है। इन किस्मों अतिरिक्त शकरकंद की और भी कई सारी किस्में जैसे कि - पूसा सफेद, पूसा रेड, पूसा सुहावनी, एच- 268, एस- 30, वर्षा और कोनकन, अशवनी, राजेन्द्र शकरकंद- 35, 43 और 51, करन, भुवन संकर, सीओ- 1, 2 और 3, और जवाहर शकरकंद- 145 और संकर किस्मों में एच- 41 और 42 आदि हैं। किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुरूप किस्म का चयन करें।

शकरकंद की फसल में खरपतवारों की रोकथाम

शकरकंद की फसल में खरपतवार की दिक्कत ज्यादा नहीं होती है। वैसे खरपतवारों की समस्याएं आरंभिक दौर में ही आती हैं, जब लताएं पूरे खेत में फैली हुई नहीं रहती। यदि शकरकंद की लताओं का फैलाव पूरे खेत में हो जाता हैं, तो खरपतवार का जमाव नहीं हो पाता है। यदि खेत में कुछ खरपतवार उगते हैं, तो मिट्टी चढ़ाते वक्त उखाड़ फेंकने चाहिऐं।

शकरकंद की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक

शकरकंद की खेती में कार्बनिक खाद् समुचित मात्रा में डालें, जिससे मृदा की उत्पादकता बेहतर व स्थिर बनी रहती है। केन्द्रीय कंद अनुसंधान संस्थान द्वारा संस्तुति की गई रिपोर्ट के अनुसार 5 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की पहली जुताई के दौरान ही भूमि में मिला देनी चाहिए। रासायनिक उर्वरकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 25 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा शुरू में लता लगाने के दौरान ही जड़ों में देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन को दो भागों में बांटकर एक हिस्सा 15 दिन में दूसरा हिस्सा 45 दिन टाप ड्रेसिंग के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। जानकारी के लिए बतादें, कि अत्यधिक अम्लीय जमीन में 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूने का इस्तेमाल कंद विकास के लिए बेहतर रहता है। इनके अतिरिक्त मैगनीशियम सल्फेट, जिंकसल्फेट और बोरॉन 25:15:10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने पर कन्द फटने की दिक्कत नहीं आती हैं। वहीं समान आकार के कन्द लगते हैं।
फरवरी में उगाई जाने वाली सब्जियां: मुनाफा कमाने के लिए अभी बोएं खीरा और करेला

फरवरी में उगाई जाने वाली सब्जियां: मुनाफा कमाने के लिए अभी बोएं खीरा और करेला

फरवरी का महीना खेती के लिहाज से बेहद शानदार होता है। वातावरण में कई फसलों के मानक के अनुसार नमी-ठंडी-गर्मी होती है। असल में, फरवरी एक ऐसा माह है जब ठंड की विदाई होती है और गर्मी धीरे-धीरे आती है। सच पूछें तो प्रारंभिक श्रेणी की गर्मी का आगमन फरवरी के आखिरी दिनों में शुरू हो ही जाता है। 

ऐसे में, किसान भाई क्या करें। किसान भाईयों के लिए यह माह बेहद मुफीद है। इस माह अगर वह ध्यान दे दें तो अनेक नकदी फसलों का अपने खेत में लगाकर बढ़िया पूंजी कमा सकते हैं।

फरवरी में बोएं क्या

पहला सवाल बड़ा मार्के का है। फरवरी में आखिर बोएं क्या। फरवरी में बोने के लिए नकद फसलों की लंबी फेहरिस्त है। आप फरवरी में सब्जियां बो सकते हैं। कई किस्म की सब्जियां हैं जो इस मौसम में ही बोई जाएं तो बढ़िया मुनाफ होता है।

कौन सी सब्जियां

फरवरी में आप करेला, खीरा, ककड़ी, अरबी, गाजर, चुकंदर, प्याज, मटर, मूली, पालक, गोभी, फूलगोभी, बैंगन, लौकी, करेला, लौकी, मिर्च, टमाटर आदि बो सकते हैं। इनमें बहुत सारी सब्जियां ऐसी हैं जो 90 दिनों का वक्त लेती हैं लेकिन कुछेक सब्जियां ऐसी भी हैं जो मात्र 50 से 60 दिनों में तैयार हो जाती हैं।

खेत की तैयारी

मान लें कि आप अपने खेत में खीरा बोना चाहते हैं। खीरा बोने के पहले आपके खेत की कंडीशन कायदे की होनी चाहिए। पहली शर्त यह है कि जो खेत की मिट्टी होनी चाहिए, वह रेतीली दोमट होनी चाहिए। दोमट मिट्टी में भी शर्त यह है कि उसमें जैविक तत्वों की प्रचुर मात्रा हो और पानी की निकासी उम्दा स्तर की हो। 

ऐसे, किसी भी जमीन पर आप अगर खीरा उगाना चाहेंगे तो फेल कर जाएंगे। यह बहुत जरूरी है कि दोमट मिट्टी हो और पानी ठहरे नहीं, निकास होता रहे। वैज्ञानिक भाषा में बात करें तो मिट्टी की गुणवत्ता पीएच 6 या पीएच 7 होनी चाहिए।

जमीन कैसे बनाएं

यह बेहद जरूरी है कि खेत में कोई घास-पतवार नहीं हो। यह बिल्कुल साफ-सुथरा होना चाहिए। दोमट मिट्टी को भुभुरा बनाने के लिए पूरे खेत को तीन से चार बार जोत लेना जरूरी होता है। हल-बैल से जोत रहे हैं तो पांच बार। ट्रैक्टर से जोत रहे हैं तो कम से कम 3 या अधिकतम चार बार जोतें। 

खेत जोतने के बाद मिट्टी में गाय के गोबर को मिलाएं। गाय का गोबर मिलाने के बाद खेत की उर्वरा शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। आप अन्य खाद का इस्तेमाल न करें तो बेहतर। जब गोबर मिला दिया गया तो अब आप 2.5 मीटर चौड़े और 60 सेंटीमीटर की लंबाई का फासला रख कर नर्सरी तैयार कर लें।

बिजाई

बिजाई फरवरी माह में करना उचित होता है। बीजों की बिजाई के वक्त 2.5 मीटर चौड़े नर्सरी बेड पर दो-दो बीज बोयें और दोनों बीजों के बीच में कम से कम 60 सेंटीमीटर का फैसला जरूर रखें। 

बीज की गहराई कम से कम 3 सेंटीमीटर होनी चाहिए। 3 सेंटीमीटर गहराई में आप जब बीज डालते हैं तो उसे पक्षी निकाल नहीं सकेंगे। फिर उन्हें मुकम्मल रौशनी और हवा भी मिल सकेगी।

कैसे करें बिजाई

खीरे की खेती के लिए छोटी सुरंगी विधि का भारत में बहुत प्रयोग किया जाता है। इस विधि के तहत 2.5 मीटर चौड़े नर्सरी के बेड पर बिजाई होती है। बीजों को बेड के दोनों तरफ 45 सेंटीमीटर के फा.ले पर बोया जाता है। बिजाई के पहले 60 सेंटीमीटर लंबे डंडों को मिट्टी में गाड़ देना चाहिए। 

फिर पूरे खेत को प्लास्टिक शीट से कवर कर देना चाहिए। जब मौसम सही हो जाए तो प्लास्टिक को हटा देना चाहिए। माना जाता है कि खीरे के बीज को गड्ढे में ही बोना चाहिए। आप चाहें तो गोलाकार गड्ढे बना कर भी बीज डाल सकते हैं।

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, एक एकड़ खेत में खीरे का एक किलोग्राम बीज काफी है। प्रति एकड़ एक किलोग्राम बीज इसका आदर्श फार्मूला है।

उपचार

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, बिजाई से पहले ही खीरे की फसल को कीड़ों और अन्य बीमारियों से बचाने के लिए अनुकूल रासायनिक का छिड़काव करना चाहिए। बेहतर यह हो कि आप बीजों का 2 ग्राम कप्तान के साथ उपचार कर लें, फिर बिजाई करें।

खीरे की किस्में

  • पंजाब खीरा

यह 2018 में जारी की गई किस्म है। इसके फल हरे गहरे रंग के होते हैं। इनका टेस्ट कड़वा नहीं होता। औसतन इनका वजन 125 ग्राम का होता है। इसकी तुड़ाई आप फसल बोने के 60 दिनों के भीतर कर सकते हैं। फरवरी में अगर आप यह फसल बोते हैं तो माना जा सकता है कि प्रति एकड़ 370 क्विंटल खीरा आपको मिलेगा।

  • पंजाब नवीन खीरा

यह आज से 14 साल पुरानी किस्म है। इसका आकार बेलनाकार होता है। इस फसल में न तो कड़वापन होता है, न ही बीज होते हैं। यह 68 जिनों में पक जाने वाली फसल है। इसकी पैदावार 70 क्विंटल प्रति एकड़ ही होती है।

करेले की बुआई

करेले की बुआई दो तरीके से होती हैः बीज से और पौधे से। आपकी जिससे इच्छा हो, उस तरीके से बुआई कर लें। बाजार में बीज और पौधे, दोनों मौजूद हैं। 

करेले के दो से तीन बीज 2.5 से 5 मीटर की दूरी पर बोएं। बोने के पहले बीज को 24 घंटे तक पानी में जरूर भिगोना चाहिए ताकि अंकुरण जल्द हो। जो नदियों के किनारे का इलाका है, वहां करेले की बढ़िया खेती होती है। खेती के पहले जमीन को जोतना बेहद जरूरी है। 

इसके बाद दो से तीन बार जमीन पर कल्टीवेटर चलवा देना चाहिए। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, अंकुरण में भी तेजी आती है। उम्मीद है, हमारी दी हुई यह जानकारी आपकी आमदनी बढ़ाने में फायदेमंद साबित होगी।

शिमला मिर्च, बैंगन और आलू के बाद अब टमाटर की कीमतों में आई भारी गिरावट से किसान परेशान

शिमला मिर्च, बैंगन और आलू के बाद अब टमाटर की कीमतों में आई भारी गिरावट से किसान परेशान

हरियाणा राज्य में टमाटर की स्थिति गंभीर रूप से खराब हो गई है। यहां टमाटर केवल 3 से 4 रुपये किलो की कीमत पर बेचा जा रहा है। लाने ले जाने का किराया तक भी नहीं निकल पा रहा है। इसकी वजह से किसानों में गुस्सा है। जिसके चलते किसान अपने टमाटरों को सड़क पर ही फेंक रहे हैं। रबी का सीजन भी किसानों के लिए संकट बन रहा है। मार्च माह में बारिश के साथ ही ओलावृष्टि से सरसों और गेंहू की फसल को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा है। किसानों की हानि की भरपाई तक नहीं हो पा रही है। बहुत सारे राज्यों में मिर्च, सेब की फसल भी बर्बाद होने की हालत में है। फिलहाल, यह ताजा खबर सामने आ रही है, कि टमाटर को लेकर सामने आ रही है। टमाटर की यह स्थिति हो गई है, कि मंडी में 3 से 4 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेकी जा रही है। इतनी कम कीमतों में भाड़ा का खर्चा तक न निकल पाने से किसान काफी चिंतित हैं।

निराश किसान सड़कों पर फेंक रहे टमाटर

टमाटर की यह बुरी स्थिति हरियाणा राज्य से सुनने आई है। हरियाणा राज्य के चरखी दादरी जनपद क्षेत्र में टमाटर 3 से 4 रुपये किलो के भाव से ही बिक रहा है। दरअसल, किसान अपने टमाटर को लेकर चरखी मंडी में बेचने के लिए पहुंचे हैं। उन कारोबारियों ने टमाटर का दाम महज 3 से 4 रुपये प्रति किलो ही लगाया। इतने कम भाव सुनकर किसान भड़क गए। यातायात को ना निकलता देख उन्होंने अपने टमाटरों को सड़कों पर ही फेंक दिया है।

दोगुनी मार से किसान काफी हताश हैं

हरियाणा राज्य के चरखी दादरी में बड़ी तादात में किसान खेती-बाड़ी से जुड़े हैं। मार्च माह में बारिश के साथ ओलावृष्टि से सरसों, गेंहू सहित बाकी फसलों को हानि हुई था। टमाटर की वर्तमान में चल रही कीमतों ने किसान को चिंतित कर दिया है। किसान इस दौरान दोहरी मार सहन करने की हालत में नहीं है।

टमाटर की इतनी बड़ी दुर्दशा क्यों हुई है

हरियाणा के बहुत सारे जनपदों में टमाटर की बुरी स्थिति हो चुकी है। कहा गया है, कि इस बार टमाटर का काफी ज्यादा उत्पादन हुआ है। हालाँकि टमाटर की इतनी खपत नहीं है। टमाटर न तोड़ पाने की वजह से टमाटर खेत में ही सड़ने लग चुके हैं। किसान मंडी में टमाटर बेचने जा रहे हैं, तो उन्हें मनमाफिक कीमत ही नहीं मिल पा रही है। ऐसी हालत में अब किसान क्या करें। सड़कों पर टमाटर फेंकना ही किसानों की मजबूरी बन चुकी है।

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सरकारी तंत्र ने इस विषय पर क्या कहा है

हरियाणा के सरकारी तंत्र का कहना है, कि कुछ इलाकों में ओलावृष्टि के साथ हुई बारिश से टमाटर बर्बाद हो चुका है। कीटों का संक्रमण भी टमाटर पर देखने को मिल रहा है। किसानों की सहायता की हर संभव प्रयास किया जा रहा है। राज्य सरकार का प्रयास है, कि टमाटर का समुचित भाव किसानों को मिलना चाहिए।
अगस्त महीने में खेती किसानी से संबंधित अहम कार्य जिनसे किसानों को होगा बेहतरीन फायदा

अगस्त महीने में खेती किसानी से संबंधित अहम कार्य जिनसे किसानों को होगा बेहतरीन फायदा

अगर आप भी आने वाले महीने यानी की अगस्त माह में अपनी फसल व पशुओं से अच्छा लाभ चाहते हैं, तो यह कार्य जरूर करें। किसानों को फसल से अच्छा मुनाफा पाने के लिए खेत पर सीजन के अनुसार ही फसलों की रोपाई करनी चाहिए। जिससे कि वह समय पर अच्छा लाभ और साथ ही अच्छी उत्पादन बढ़ा सके। इसी कड़ी में आज के इस लेख में हम आपके लिए अगस्त माह के कृषि कार्य की संपूर्ण जानकारी लेकर आए हैं। तो आइए इनके बारे में जानते हैं, सबसे पहले अगस्त माह की फसलों के विषय में जानने का प्रयास हैं।

अगस्त महीने में खेती किसानी से जुड़े संबंधित कार्य

धान, सोयाबीन, मूँगफली और सूरजमुखी से जुड़े कार्य

धान इस वक्त धान की रोपाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिससे कि आप इससे अच्छी पैदावार ले सको। सोयाबीन की फसल अगस्त माह में किसानों को अपनी
सोयाबीन की फसल बुआई पर सबसे अधिक ध्यान रखने की आवश्यकता है। साथ ही, इनके रोग पर नियंत्रण करने के लिए कदम उठाने चाहिए। इसके लिए आप डाईमेथोएट 30 ई.सी. की एक लीटर मात्रा 700-800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। मूंगफली की बात की जाए तो इस माह में मूंगफली के खेत में मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। सूरजमुखी की ओर ध्यान दें तो अगस्त माह में किसानों को खेत में सूरजमुखी के पौधे लाइन से लगाने चाहिए। ध्यान रहे कि पौधों का फासला कम से कम 20 सेमी तक कर होनी चाहिए।

बाजरा, गोभी, बैगन, कद्दू और अगेती गाजर से जुड़े कार्य

बाजरा की बात की जाए तो इस दौरान बाजरे के कमजोर पौधों को खेत से निकालकर फैंक देना चाहिए। पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सेंमी तक होनी चाहिए। अरहर के लिए अगस्त में अरहर फसल के खेत में निराई-गुड़ाई करके आपको खरपतवार को निकाल देना है। बतादें, कि रोग निवारण के उपायों को अपनाना चाहिए। गोभी की बात की जाए तो इस महीने में गोभी की नर्सरी की तैयार करनी चाहिए। अगस्त में अगेती गाजर की बुवाई चालू कर देनी चाहिए। कद्दू की बात करें तो इस समय आपको मचान बनाकर सब्जियों पर बेल चढ़ा देनी चाहिए। बैंगन की सब्जी में इस समय बीज उपचारित करके फोमोप्सिस अंगमारी तथा फल विगलन की रोकथाम करें।

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आम और नींबू से संबंधित कार्य

आम की बात करें तो अगस्त महीने में आपको आम के पौधों में लाल रतुआ एवं श्यामवर्ण (एन्थ्रोक्नोज ) की बीमारी पर कॉपर ऑक्सिक्लोराइड (0.3 प्रतिशत ) दवा का छिड़काव करना चाहिए। नींबू के लिए अगस्त महीने में नींबू में रस चूसने वाले कीड़े आने पर मेलाथियान (2 मिली/ लीटर पानी) का छिड़काव अवश्य करें। किसान भाई हमेशा पारंपरिक खेती करके किसान ज्यादा मुनाफा नहीं उठा सकते हैं।

अगस्त माह के दौरान पशुपालन से संबंधित में कार्य

अगस्त माह में पशुपालन से संबंधित बात करें तो इस महीने में पशुओं को सबसे ज्यादा मौसम से जुड़ी बीमारी का खतरा होता है। क्योंकि, अगस्त माह में भारत के विभिन्न राज्यों में बारिश का सिलसिला सुचारु रहता है। इससे बचने के लिए पशुपालक भाइयों को विभिन्न प्रकार के अहम कदम अवश्य उठाने चाहिए। इसके अतिरिक्त सुनील ने यह भी कहा है, कि पशुओं में छोटा रोग भी होने पर उसका अतिशीघ्र उपचार करें, जिससे कि वह फैल कर बड़ा रूप ना ले पाए।